भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक सृष्टि फिर / वत्सला पाण्डे

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हरसिंगार की
बारिश में
तुम लेटे थे
मैं बैठी थी

रची जा रही थी
एक और सृष्टि

तुम्हारी पीठ पर
पत्ते की नोंक से
लिख बैठी थी
प्यार

उतरती गई
किसी गहराई में
भीगती रही
धरती
उलीचती रही
सागर

तुमने
करवट बदली
लोप हो गई
मैं