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एक सृष्टि फिर / वत्सला पाण्डे
Kavita Kosh से
हरसिंगार की
बारिश में
तुम लेटे थे
मैं बैठी थी
रची जा रही थी
एक और सृष्टि
तुम्हारी पीठ पर
पत्ते की नोंक से
लिख बैठी थी
प्यार
उतरती गई
किसी गहराई में
भीगती रही
धरती
उलीचती रही
सागर
तुमने
करवट बदली
लोप हो गई
मैं