एकाकीपन / अंतर्यात्रा / परंतप मिश्र
आज रात्रि के अंतिम प्रहर में
मेरा चाँद अपनी यात्रा से थक गया है
मैं अपलक इस समय को
पल-पल बीतते देख रहा हूँ
जैसे कि मैं कुछ खो रहा हूँ
कल की सुबह के लिए सूर्य
अब बस निकलने को है
सबकुछ रोज की भाँति प्रायोजित है
पर कुछ ऐसा है जो कल न मिल सकेगा।
यह सब मेरे साथ घटित हो रहा है
मैं असहाय, कुछ कर भी नहीं सकता
जो बीत रहा है वह वापस न आएगा
चाँद जो रातों का मेरा साथी है
पल भर को हो न सका उसके साथ
और अब तो वह विदा लेने को है।
मेरी पीड़ा का आभास उसे है
अपने आँसुओं को उसकी आँखों में देखा है
विदा लेते हुए उसने कहा -
अब मुझे जाना होगा, मेरे चिरमित्र !
बिछड़ने का दर्द फूटकर बह निकला
मुझे स्वीकार नहीं तुम्हे खोना
सारी खुशियाँ तुम बिन अधूरी हैं।
फिर आ जाओ एक बार
नम आँखों में खुशियाँ अपार
मैं स्तब्ध देखता रहा अपना एकाकीपन
जिन पलों में मैंने जिन्दगी जिया था
वो अब मुझसे एक-एक कर दूर हो रहे थे
जो कभी मेरे अपने हुआ करते थे।