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एन्हैं ऐतै एन्हैं जैंतै / गुरेश मोहन घोष
Kavita Kosh से
गेलोॅ पनरोॅ अगस्त आरो झंडा,
आनोॅ मछली दारू अंडा!
सालोॅ में एक बिन होतै छै,
हाकिमें सब केॅ जौतै छै।
बाँस बड़ोॅ कान्हा पर ढोलाँ,
खीरोॅ खातिर बढ़खै हन्डा।
दस दिनोॅ के हैरानी सें,
धमकी आरो बैमानी सें,
टानी-टानी पैसौ लेलाँ-
जेब कतरोॅ केॅ मारी डंडा।
ललका-ललका सालू देॅ क,
उँच्चोॅ-उँच्चोॅ मंच बनैलौं।
फलका-भुजिया लंच करैलौं-
हलका हलुआ, आलू मंडा।
चूनी बीछी नूर मंगैलौं,
भासन दैके लूर बतैलौं।
जय तिरंगा गाँधी साथैं-
जय हमरोॅ नै फोड़ोॅ भंडा।
लोढै़ के मर्दानी हमरोॅ,
गरम-गरम करदानी हमरोॅ
नरम-नरम बातै सें खाली-
ढारी देलकै पानी ठंडा।
आवेॅ खाल भरी पर ऐतै,
एन्ह ऐतै एन्हैं जैतै!
तों तिरंगा धरनें राखोॅ...
हमंे सतपटिया के पंडा।