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ऐ शाम ! ऐ मृत्यु ! / सविता सिंह
Kavita Kosh से
नहीं मालूम वह कैसी शाम थी
आज तक जिसका असर है
पेड़ों-पत्तों पर
जिनसे होकर कोई साँवली हवा गुज़री थी
बहुत दिनों बाद
वह शाम अपनी ही वासना-सी दिख रही थी
मन्द-मन्द एक उत्तेजना को पास लाती हुई
वह मृत्यु थी मुझे लगा
मरने के अलावा उस शाम
और क्या-क्या हुआ
जीना कितना अधीर कर रहा था
मरने के लिए
एक स्त्री जो अभी-अभी गुज़री है
वह उसी शाम की तरह है
बिलकुल वैसी ही
जिसने मेरा क्या कुछ नहीं बिगाड़ दिया
फिर भी मैं कहती हूँ
तुम रहो वासना की तरह ही
ऐ शाम ! ऐ मृत्यु !
मैं रहूँगी तुम्हें सहने के लिए.