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ऐश ही ऐश है न सब ग़म है / ज़ैदी

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ऐश ही ऐश है न सब ग़म है
ज़िंदगी इक हसीन संगम है

जाम में है जो मशअल-ए-गुल-रंग
तेरी आँखों का अक्स-ए-मुबहम है

ऐ ग़म-ए-दहर के गिरफ़्तारो
ऐश भी सर्नविश्त-ए-आदम है

नोक-ए-मिज़गाँ पे याद का आँसू
मौसम-ए-गुल की सर्द शबनम है

दर्द-ए-दिल में कमी हुई है कहीं
तुम ने पूछा तो कह दिया कम है

मिटती जाती है बनती जाती है
ज़िंदगी का अजीब आलम है

इक ज़रा मुस्कुरा के भी देखें
ग़म तो ये रोज़ रोज़ का ग़म है

पूछने वाले शुक्रिया तेरा
दर्द तो अब भी है मगर कम है

कह रहा था मैं अपना अफ़साना
क्यूँ तेरा दामन-ए-मिज़ा नाम है

ग़म की तारीकियों में ऐ 'ज़ैदी'
रौशनी वो भी है जो मद्धम है