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ऐसा ही होता है / राजेन्द्र गौतम
Kavita Kosh से
ऐसा ही होता है
यहाँ हर सफ़र में
कुछ हिलते रूमालों
कुछ भीगी पलकों के
धुँधलाते अक़्सों को
याद में रचाये
हर खुलती खिड़की से
कतरा कर नज़रें हम
गुज़रे हम इन कूचों से
सहमे सकुचाए
शायद ही लौटें अब
आप के शहर में
एक-एक कर पीछे
छूट गए सारे
वे दुआ सलामों के
बोझिल सम्मोहन
बर्फ़ीली खोहों में
तोड़ चुके दम हैं
रोमिल खरगोशों-से
परिचित सम्बोधन
एक अजनबीपन ही
भरा हर नज़र में
साँझ की ढलानों पर
इधर-उधर छितरी हैं
गीतों की ग़ज़लों की
नुची हुई पाँखें
चुप्पी की किरचों की
आँकती चुभन है
बदहवास चिड़ियों
की भरी हुई आँखें
बहती है थकी हवा
डूब कर ज़हर में