ऐसा होता है / रमेश रंजक
तुम जब—
चालाक इतिहास की लालटेन लिए हुए
मुझे खोज रहे थे,
मेरे हाथ
समुद्र के पेट में से
ज़मीन निकाल रहे थे,
पहाड़ों को तिरछा कर
पानी ओज रहे थे
और खींच रहे थे एक हाशिया—
पहाड़ों से समुद्र तक,
ऐसा होता है
जब आदमी शब्द हो जाता है
और शब्द
कविता ।
मैं मानता हूँ
वक़्त को पसीने से धोते रहने से
नाम छोटा होता है,
छोटे नाम की ज़मीन पर
खड़ा हुआ आदमी
दरख़्त होता है ।
दरख़्त !
अपना क़द ख़ुद निकालता है,
आदमी के क़द से ऊपर उठते ही
हज़ारों पत्तियों की अदृश्य आँखें
भाग्य से जूझती हुई, टूटती हुई
हर इकाई को
बड़े नज़दीक से देखती हैं
और महसूस करती हैं
कि इस टूटने पर
नहीं लिखी जा सकती क़िताब
दौड़ते हुए ।
तुम !
मेरे इस सत्य को
कहकहे में जला सकते हो,
मेरी दृष्टि
तुम्हारी दृष्टि हो नहीं सकती
तुम्हारे अन्धे-बूढ़े नियमों को
ढो नहीं सकती
शराब की नींद
और थकान की नींद के
बारीक अन्तर को जिसने पहचाना है
वह किसी भी सर्द उँगली को पकड़कर
चल नहीं सकता
और ऐसा तब होता है—
जब आयतन
घनत्व में डूबता है
आदमी शब्द हो जाता है
और शब्द
कविता ।