ऐसी एक छाँह देखी है..... / हरीश भादानी
ऐसी एक छाँह देखी है.....
खुली-खुली सी, धुली-धुली सी,
शीतल-शीतल, बोल-अबोली,
घेर, घुमेरों गहरी-गहरी
देख, देखता लगा नापने
मेरा अचरज इसकी सींवें,
वह क्या जाने, वह तो केवल
नीली रूपवती सैरंध्री
अपनी ओछी डोर समेटे
भीतर दुबका उधम मचाये
दबचिंथ दबचिंथ छूटूँ ही तो---
छूट-छूटते उघड़ें आँखें,
सावचेत हो देखन लागूँ-
लगी हुई है ठीक भुवन के
बीचोबीच सुपर्णी टिकुली
उससे यूँ छँवयाये मुझमें
छन-छन जाय एक रोशनी
एक गुनगुना जगरा लहरे
इससे भीतर हलबल-हलबल
बाहर का मैं आकळ-बाकळ
ताप तताये आ-आ निकलें
आखर-आखर के ही छौन
करते जाएं वे रागोली
टमका-टमका करें निहारे
ठिठका-ठिठका पाँव उठाऊँ
दिखें मुझे ऐसे कमतरिये
इक दूजे की परछाई से
इनमें ही अपने होने की
वैसी एक चाह देखी है
ऐसी एक छाँह देखी है !