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ऑफ़िस-तंत्र-4 / कुमार अनुपम

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एक लड़की मुझे फोन करती है
और शाम उगती है

पूछती है आज क्या करते रहे दिन भर
और बताती है सुबह 'जिम गई 'वी गले का ट्रैक-सूट पहनकर और लौटकर एक गिलास दूध पिया शाम को नहीं पीती हूँ ना और दो चोटी नहीं किया और रूमाल टॉप के बाँयी ओर नहीं पिन किया और वाटर-बॉटल कन्धे पर बिना टाँगे ऑफ़िस गई और हाँ लंच-आवर में आया तो था एक साड़ीवाला पर ना नहीं खरीदी एक भी साड़ी आज देर से मिला ऑटो भी अभी पहुँची हूँ चाची एक आवाज़ पर दे गई थी चाय पीकर बैठी हूँ

पूछती है क्यों हैं उदास बोलते क्यों नहीं
और बताती है सच में वो कितने अच्छे दिन थे मुझ में जो उगते थे बाइक पर और ढलते थे बाइक पर उसे भूल नहीं पाती और भूलना भी नहीं चाहती वह मेरा प्यार है और जानते हो मैं तो हर हद तक जा सकती थी अपना बनाने के लिए उसे सम्पूर्ण पर वो ही हट गया पीछे अपनी किन्हीं मज़बूरियों के जंगल में अब उसकी अपनी दुनिया है अपना वंश बहुत दिन से दिखा भी तो नहीं और हाँ मेरे इश्क ने मुझे खोज लिया अब अपने साथ हूँ लेकिन उसकी ना बहुत बहुत याद आती है अच्छा आओ भी अब जानते हो चार दिनों से नहीं लगाया मैंने काजल बूझो ज़रा क्यों आओ न क्विक अभी देखो न मुझे मिला नहीं कॉन्ट्रेक्ट करो न बात कितना तो पसन्द करते हैं तुम्हें बॉस और मैं... कुछ समझे बुद्धू...ओके गुडनाइट स्वीटड्रीम्स टेक केयर बाय...

और फुलवारियों में कई तरफ रात घिरती है।