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ओ चांद / महेन्द्र भटनागर

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ओ चांद सलोने ! अम्बर से
क्या कभी न नीचे उतरोगे ?

बंद करो उन्मत्त ! चकोरी
का और चुराना भोला मन,
दूर करो नभ के जादूगर !
मचली लहरों का पागलपन,
शांत करो जिज्ञासा कवि के
उर में बढ़ने वाली प्रतिक्षण,

ओ चांद अनोखे ! जीवन का
चुप-चुप कब भेद बताओगे ?

शायद न मिटेगी युग-युग तक
यह दिन-दिन बढ़ती सुन्दरता,
शायद न मिटेगी युग-युग तक
यह निज चरणों की निर्भरता,
शायद न मिटेगी युग-युग तक
यौवन की अल्हड़ चंचलता,

ओ चांद अकेले ! बाहों में
क्या कभी मुझे भी भर लोगे ?