भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ओ जनम-जनम के सहचर / विमल राजस्थानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ओ जनम-जनम के सहचर मन !
कुछ और तपो, निखरो साथी !

इस असफलता की कल्प-लता
को केवल आँसू काटेंगे
छौने सुकुमार वेदना के ही
तो अपना दुख बाँटेंगे
भुजबल से लहरें चीर, तरी-
तारो तट पर उतरो साथी !

प्रिय कौन, कहाँ से आयेगा
इस दुनिया को बतलाना क्या ?
जग ने कब समझा, समझेगा
आँखों का भर-भर आना क्या ?
जीवन को अश्रु बनाकर तुम
प्रिय के पथ पर बिखरो साथी !

ओ जनम-जनम के सहचर मन !
कुछ और तपो, निखरो, साथी !