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ओ सखि सुन - 2 / विमलेश शर्मा
Kavita Kosh से
दो बूँदे ढुलकी झील में
और बादल बरस पड़े !
आँसुओं को ओट भर ही तो चाहिए थी
कि और नज़रें उसे
और तरीक़े से न देख पाएँ!
मुस्कराहट यहाँ हार चुकी थी
सो बादल ठहर गए सुचिक्कन कपोलों पर
मीत बन, साथी बन
आख़िर थी तो दोनों में ही नमक की तासीर!
स्त्री को
उसकी हर अभिव्यक्ति को
ओट की दरकार होती है!
भाषा में सुसंस्कृत शब्दों की ओट
अभिव्यक्ति में सहजता की ओट
और जाने क्या-क्या और कितनी-कितनी ओट
पर यह ख़ूब है कि
वह प्रेम में ओट नहीं चाहती
नहीं चाहती किसी
तिनके का भी हस्तक्षेप वहाँ
वह धरती हो आसमां की चाह रखती है
तो आसमां हो धरती-सा धीर भी धरती है
अगर यों आसमां धरती की ओट है
तो यहाँ यह सहजीवन पूरक है
वह स्त्री दृष्टि से स्वीकार्य है!