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औकात / रविकान्त
Kavita Kosh से
मुझे
हर जगह
मेरी औकात का पता चलता है
मैं हर समय उदास रहता हूँ
जीवन की नैतिकता
एक स्वच्छ चेहरा रखने की सलाह देती है
मैं लोगों से मिलता हूँ मुस्करा के
मैं जहाँ भी जाता हूँ
जिससे भी मिलता हूँ
मुझे अपने
कल तक के जीवन का पता चलता है
कसमें खाता हूँ
प्रतिज्ञाएँ करता हूँ
रोमांच को पोर-पोर में समो लेने के लिए
ठहर जाता हूँ
रात को
कोई इच्छा धर के सोता हूँ
और सुबह सबसे पहले
भुलाता हूँ
अपने बढ़े-हुए इतिहास को
मैं
बड़े, छोटे और बराबर वालों के साथ
घूमता हूँ
दुःखी होता हूँ
लौट आता हूँ घर
केवल संगीत
केवल नृत्य
केवल दृश्य
केवल कविताएँ
केवल 'मनुष्य' ही ऐसे हैं
जो मुझसे मेरी औकात नहीं पूछते
और चलते हैं मेरे साथ