भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
औद्यौगिक नगरी / मृदुला शुक्ला
Kavita Kosh से
नदी के छिरयैलोॅ केसोॅ केॅ गूँथी, सजाय देलेॅ छौ शेफाली सें।
रंगी देलेॅ छौं आसमानोॅ के होंठ, चिमनिहै के लाली सें।
तोरोॅ बसैलोॅ दुनियाँ के, हर इत्सान छौं कायल।
तोरोॅ गीतोॅ के सहेली, बनी गेल्हौं लहरोॅ के पायल।
पहाड़ोॅ के दिलोॅ में प्रेम क दीया जरात देल्हौ।
संरग के तोहंे आय, जमीनोॅ पर बसाय देल्हौ।
औद्यौगिक हय नगरी, उन्नति के छेकै राह।
मिलै छै जहाँ सभ्यता, डाली केॅ गलबाँह।
मतरकि यहां सूरजोॅ के साथें, सुबह-सांझ नै होय छै।
सांस भी आपनोॅ यहाँ, आपनोॅ नाँ नै होय छै।
कडुयैलोॅ धुइंयाँ में, लहकैलोॅ चिमनी में।
जिनगी रही गेलै, पाली, साइकिल टिफिनी में।
प्रकृति होलै हतप्रभ, इन्सान मरी गेलै।
आदमी के आदमी सें, उम्मीदोॅ के मशीन लै गेलै।