और जन्म रहा है एक पुरुष / वंदना गुप्ता
मर चुकी है इक स्त्री मुझमें शायद
और जन्म रहा है एक पुरुष
मेरी सोच की अतिवादी शिला पर
दस्तकों को द्वार नही मिल रहे
फिर भी खटखटाहट का शोर
अपनी कम्पायमान ध्वनि से प्रतिध्वनित हो रहा है
स्त्री होने के लिए जरूरी है
सर झुकाने की अदा
बिना नाजो नखरे के मशीनवत जीने का हुनर
पुरुष के रहमोकरम पर जीने, मुस्कुराने का हुनर
और अब ये संभव नहीं दिख रहा
होने लगी है शून्य भावों से, संवेदनाओं से
होने लगी है वक्त के मुताबिक प्रैक्टिकल
सिर्फ़ भावों की डोलियों में ही सवार नहीं होती अब दुल्हन
करने लगी है वो भी प्रतिकार सब्ज़बागों का
गढने लगी है एक नया शाहकार
लिखने लगी है एक इबारत पुरुष के बनाये शिलास्तम्भ पर
तो मिटने लगी है उसमें से एक स्त्री कहीं ना कहीं
इसलिये नहीं होती अब उद्वेलित मौसमों के बदलने से
पुरुषवादी प्रकृति की उधारी नहीं ली है
आत्मसात किया है खुद में
आगे बढने और चुनौतियों को झेलने के लिये
एक अपने हौसलों के पर्वत को स्थापित करने के लिये
जिनमें अब नहीं होते उत्खनन
जिनके सपाट चौडे सीनों पर उग सकते हैं देवदार,चीड और कैल भी
बस स्थापत्य कला के नमूने भर हैं
स्त्री की मौत पर उसकी अस्थियाँ रोंपी हैं पर्वत की नींव में
ताकि उगायी जा सके श्रृंखला वनस्पतियों की
जो औषधि बन कर सकें उपचार जडवादी सोच का
यूँ ही नहीं हुयी है एक स्त्री की मौत
कितने ही सरोकारों से जुडना है अभी
कितनी ही फ़ेहरिस्तों को बदलना है अभी
टांगना है एक सितारा अपने नाम का भी आसमाँ में
तभी तो स्त्री के अन्दर का शोर दफ़न हो रहा है
उगल रही है उगलदानों मे काँधों पर उठाये बोझों को
और जन्म रही है स्त्री में पुरुषवादी सोच
ले रही है आकार एक और सिंधु घाटी की सभ्यता
अब द्वार मिलें ना मिलें
दस्तक हो ना हो
ध्वनि है तो जरूर पहुँचेगी कानों तक