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और ये इंसाँ / मजीद 'अमज़द'
Kavita Kosh से
और ये इंसाँ जो मिट्टी का इक ज़र्रा है जो मिट्टी से भी कम-तर है
अपने लिए ढूँढे तो उस के सारे शरफ़ सच्ची तम्कीनों में हैं
लेकिन क्या ये तक्रीमें मिलती हैं
ज़र की चमक से
तहज़ीबों की छब से
सल्तनतों की धज से
नहीं नहीं तो
फिर क्यूँ मिट्टी के इस ज़र्रे को सज्दा किया इक इक ताक़त ने
क्या उस की रिफ़अत ही की ये सब तस्ख़ीरें हैं
मैं बतला दूँ
क्या उस की कुव्वत और कैसी उस की तस्ख़ीरें
मैं बतला दूँ
क़ाहिर जज़्बों के आगे बेबस होने में मिट्टी का ये ज़र्रा
अपने आप में
जब मिट्टी से भी कम-तर हो जाता है सुनने वाला उस की सुनता है
सुनने वाला जिस की सुने वो तो अपने मिट्टी होने में भी अनमोल है