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औरत - 4 / संगीता गुप्ता
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दर्द करते माथे के बावजूद
सोचती है वह
बच्चे, घर और परिवार
नहीं रहते अनुपस्थित कभी सोच में
और नहीं जा पाता है इनसे बाहर
उसके सोच का, सपनों का फेरा
बोलते हैं उसके लड़े युद्ध
सुबह, दोपहर, शाम
हर दिन
उसके मौन के बीच से,
पूरे परिवार का, दफ्तर का
कोलाहल पीता
निरन्तर बजता है मौन उसका
बन कर अनहद नाद
घर, परिवार और दफ्तर
सब कहीं आँखें फाड़े देखती हूँ
कहाँ - कहाँ
गूंजता है निरन्तर
उसके मौन का
अविराम नाद