औरत / सुधा चौरसिया
मैं वही हूँ, जिसने बेच दी
अपनी अस्मिता, अपनी पहचान
चन्द खूबसूरत अल्फ़ाज़ों की एवज में
क्योंकि वे अल्फ़ाज़ बड़े इंद्रजालिक रहे हैं
मैं उस सुनहले कैद से निकल ना सकी अबतक
और सूरजमुखी की तरह अपना निजत्व खो बैठी
फिर तो दिग्भ्रमित मेरी सोच ने
मुझे पहाड़ की तरह मौन
और धरती की तरह बेजुवान बनाया
और मैं भोगती रही सारी की सारी यातनाएँ
क्योंकि तमाम साहित्य
और धर्मग्रंथों ने मुझे खूब सजाया, सँवारा
और मैं देवदासियाँ, नरदासियाँ बन
हरम, उपहार, खरीद-बिक्री
व कोठों के लिए सुलभ होती रही
इतना ही नहीं
धर्म के ठेकेदारों ने मुझे, गंगा
और गोदावरी बनाया
फिर सारी की सारी गंदगियाँ
मुझमें उड़ेलते रहे
पता नहीं
मैं कबतक अपने ही पतियों द्वारा
उठवायी जाती रहूँगी दरिंदों के हाथ
दान होती रहूँगी पिताओं के हाथ
जलती रहूँगी राम के वंशजों के हाथ
इससे पहले कि मेरी विचार वेदना मर जाये
आओ मैं निगल जाऊँ इन दरिंदों को
रौंद दालूँ उस समाज को
आग लगा दूँ उन साहित्यों
और धर्मग्रंथों को
जिसने मुझे व्यक्ति से वस्तु बनाया
वरना मैं तब्दील कर दी जाऊँगी
प्लास्टिक की औरत में...