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औरतें / हरे प्रकाश उपाध्याय

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औरतें
धरती पर पाँव नहीं रोप पाती थीं
चार कदम चलना हो तो छह बार गिरती थीं
न जाने कैसी तो थीं औरतें
दुर्गा, काली के रूप में पूजी जाती थीं
मगर धरती पर सीता की नियति ही पाती थीं
  
माथे पर पति
और बच्चों की ज़िन्दगी
आँखों में समुद्र
और छाती में अमृत ढोए चलती थीं
मगर ख़ुद दिन में सौ -सौ बार मरती थीं

नारज़ होना
मना था इनके लिये
होतीं तो गुस्सा
चूल्हे और बरतनों पर उतारती थीं

देख न ले कोई पराया मर्द
घूँघट से ढँककर रखती थीं चेहरा
वैसे कोई किस्सा वैशाली की
नगरवधू का भी है पर
आज चौखट से बाहर
रास्ते पर
उतरी हैं औरतें
मर्दो से आँखें मिला रहीं हैं

औरतें
घेर रही हैं विधानसभा
हवा में उड़ रही हैं
ज़मीन पर दौड़ रही हैं
उड़नखटोला उड़ा रही हैं
नारे लगा रही हैं
राज चला रही हैं
क्या से क्या हो रही हैं औरतें
आँख निकल रही है गुस्साये मर्दो की.......