भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
औरतें यहाँ नहीं दिखतीं / देवी प्रसाद मिश्र
Kavita Kosh से
औरतें यहाँ नहीं दिखतीं
वे आटे में पिस गई होंगी
या चटनी में पुदीने की तरह महक रही होंगी
वे तेल की तरह खौल रही होंगी उनमें
घर की सबसे ज़रूरी सब्ज़ी पक रही होगी
गृहस्थाश्रम की झाड़ू बनकर
अन्धेरे कोने में खड़े होकर
वे घरनुमा स्थापत्य का मिट्टी होना देखती होंगी
सीलन और अन्धेरे की अपठ्य पाण्डुलिपियाँ होकर
वे गल रही होंगी
वे कुएँ में होंगी या धुएँ में होंगी
आवाज़ें नहीं कनबतियाँ होकर वे
फुसफुसा रही होंगी
तिलचट्टे-सी कहीं घर में दुबकी होंगी वे
घर में ही होंगी
घर के चूहों की तरह वे
घर छोड़कर कहाँ भागेंगी
चाय पिएँ यह
उनकी ही बनाई है ।