कंसक चिन्ता / कृष्णावतरण / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
स्थान: राजकक्ष, समय: निशीथ, विषय: कंसक भय-चिन्ता
समय निशीथक सुतल भूतलक लोक
अन्धकार चहुँ ओर न कहुँ आलोक
तखनहु मथुरा राजभवनकेर कक्ष
रत्न-दीप सङ ककरहु जरइछ वक्ष
किन्तु अन्तरक अन्धकार तत गाढ़
सुझय न अथ - इति अथउत चित्त प्रगाढ़
किंकर्तव्य-विमूढ़ असुरपति कंस
बुझि पड़इछ जनु जीवन होइछ ध्वंस
गगन-गिराकेर अक्षर-अक्षर वक्ष
भेदि रहल अछि विष बर्छी प्रत्यक्ष
की छल तथ्य कथ्य वा छù-प्रपंच
सोचइत निद्रा-विरत न चैनहु रंच
कंसक मन-वनमे न सुखक अछि फूल
चिन्ता-कण्टक गड़इछ उर कत शूल
गगन - वचन जे सुनल न बिसरल जाय
बहिनिक गभ्रज सुत हाथेँ वध हाय!
कयलहुँ कते मनोरथसँ सम्बन्ध
यदुकुल बसुदेवक संगहि अनुबन्ध
यौतुक कत कौतुकसँ कर्पल हाय!
रथ-सारथि बनि स्वयं करैत बिदाय
किन्तु हन्त! दिनमान साँझ पड़ि गेल
आशा-दीपक बिनु पवनहि मिझि गेल
नभ-वाणी नहि सहजहिँ वज्राघात
आठम देवकि - गर्भज हाथेँ घात
सुनितहिँ तखनहि चित उद्दीपित भेल
जड़िअहिँ काटि करी निष्फल सभ खेल
देवकीक वध हित जहिँ खड्ग उठौल
भगिनीपति कत कहि हमरा समझौल
अरपब पुत्र जनमितहिँ अपनहि आबि
अहाँ अपन हाथेँ मारब गर दाबि
रहत न बाँस बाँसुरी बजत न टेरि
से तुनि सहमि गेलहुँ धातेँ मुह फेरि
कयल देबकी - वसुदेवहुकेँ बन्द
वन्दी गृहमे कर - पद बान्हि सुबन्ध
बजला पिता उग्रसेनहु किछु मेलि
हुनकहु राज्यासनसँ देलहुँ ठेलि
जत जे कयलनि एहिमे किछु प्रतिवाद
बन्धु कुटुम्बी अथवा अपन दयाद
सबकेँ बन्धन देल छीनि अधिकार
असुर सबलकेँ सोंपल शासन-भार
शंकाकुल हम की नहि कयलहुँ कर्म
ऋषि-मुनि सन्त दैवतक खोधल मर्म
दमन प्रचण्ड दण्ड शासनक झमेल
थुरा गेल मथुरा, व्रज रज-मिलि-गेल
छल दबाव तत रोब-दाब भरि देश
हुकुम देल, जे जनमय शिशु अवशेष
हाजिर करय हमर आगाँ झट आबि
जनम-मरण लेखा हमरहि कर भावि
वसुदेवहु जत सन्तति सद्यःजात
आनि समर्पल, सबहुक कैलहुँ घात
आठम गर्भ प्रतीक्षित छलय विशेष
किन्तु विधान विधिक विपरीतहि शेष
गर्भ - प्रसव सभ कारागारहि युक्त
बन्धनमे रहि माय-बाप अभियुक्त
जाथि पड़ाय न, लेथि न पुत्र नुकाय
पहरापर झट अठपहरा बैठाय
जागरूक हम सतत, हृदयमे हूक
कोना करब शिशुकेँ निज कर शत टूक
कान पाथने छन-छन छल सन्धान
कोना मेटायब हम दैवी अवदान
हन्त! किन्तु जनमलि कन्या विपरीत
मिथ्या गगन-गिरा छल वा अभिनीत
शिला पटकितहिँ शैल-सुता बनि गेल
मायामयि नभ चढ़ि किछु गढ़ि कहि गेलि-
‘सुनह, अंत छह निकट दनुज महराज!
दुष्ट दमन ओ शिष्ट रक्षणक काज
जनमि कतहु व्रज बीचहि शक्ति-महान
वधकर्त्ता अवतरल स्वयं भगवान’
भयाक्रांत कंसक मानस छल भ्रान्त
समय-असमयहु बूझ न मूढ़ अशान्त
दौवारिककेँ दौड़ाओल तत्काल
आबथु झट उद्भट भट कर-करवाल
आज्ञा पाबि उपस्थित सचिव समस्त
असुर निठुर मायावी हिंसाभ्यस्त
कहल सकल शंकाकुल घटना-चक्र
कोना पार पायब संकट ई बक्र
कहल पूतना, जत जनमल व्रज भूमि
मारब दुधमूहाँ पिहुआकेँ घूमि
जहर भरल हम दूध पिआयब जाय
चिन्ता करिअ न, हम छी जखन सहाय
जते विकट भट असुर शकट तृणवर्त
अघ वक केशी लंब प्रलम्ब समर्थ
बाजि उठल सब हो-हो करइत क्रूर
हतब अहँक रिपु छनहि, न मन हो झूर
सब अछि सुतल अहँक अनुगत सामन्त
बचय न पाओत केहनी दिव्य दुरन्त
अस्तु आब देखक अछि की भवितव्य
कोना बाँचि सकते बच्चू हन्तव्य
मथुरा राजमहल अछि चिन्ता-मग्न
भयंकरहुकेँ भय पैसल अछि नग्न
चलु गोकुल दिस जतय उगल छथि चान
राहु-केतु ग्रसवा लय लैछ उड़ान