कइके जतन दबा देहीं / आनन्द सन्धिदूत
हरफे-हरफे काजर-टीका अंग-अंग नोक्ता देहीं।
हमरो एगो शे’र समय का पहिया पर लिखवा देहीं।
हम का लिखीं बसीयत हमरा आव-जाव हइये ना
बा खाली बदनामी ओके गंगा में सेरवा देहीं।
चाहीं इहे पसर भर भोजन, सूतत बेर पहर भर ठौर
एतनो नाहीं मिली त आगे चाहे जवन सजा देहीं।
पढ़ला पर सत्ता के कहनी दुनियाँ समझ में आइल ना
ओह कहनी में अपनो कहनी हीरा अस जड़वा देहीं।
रोवत-हँसत अतीत देख के चक्कर आइल गिर पड़लीं
हमरो आँखी कोल्हू पशु के नजरबन्द चढ़वा देहीं।
घृणा रेत पर माथ पटक के लवटे लहर मोहब्बत के
एह पटवन में, दुइयो पतई कवनो तरह उगा देहीं।
नजर कबूतर के सन्देसा जिन बइठल दउरावल जाव
एह पुतरी पर धइ तरहत्थी उमगल नदी दबा देहीं।
गम पर डाल हँसी के परदा जी लिहला में इज्जत बा
हमरा बाद उदासे केहू कइके जतन हँसा देहीं।