कउआ काका / कुमार वीरेन्द्र
छौंकने की सुगन्ध
जब पड़ोस से आती
नाक से खींच-खींच, भरता भीतर, मन
भर जाता, 'आहा-आहा' करते, दौड़ता फिरता, दुआर-आँगन
फिर आजी से पूछता, 'आपन घरे दाल कब बनेगी ?' वह हर
बार की तरह यही कहती, 'कउआ काका परदेस
गया है न, लाएगा तो बनेगी', कभी
पूछता, 'जब देखो
गेहूँ भात, उजरका भात खाना है
सबके घर बनता है, चलो
देखो, अपने घर कब बनेगा, आजी फिर कहती, 'बेटा
कउआ काका परदेस गया है, लाएगा तो बनेगा, रात में जब गुड़ में पगा हुआ, आलू खिलाने
बैैैठती, झुुँझलाता, 'तुम भी इहे खिलाती हो, माई भी इहे खिलाती है, कबहुँ रोटी नाहीं बनेगी
का ?', आजी फिर कहती, 'देखो, अबकी आएगा न कउआ काका, जाने नाहीं दूँगी
कहूँगी, तुम चले जाते हो, बउआ को दाल नाहीं मिलती, भात अउर
रोटी भी...', जब सब खा लेते, तब माई खाती, लेकिन
एक दिन देखा, सब सो गए और
आजी बोरसी ताप रही, अब खा रही
बोरसी से आलू निकाल
नमक-मरचाई संग, आग में पका आलू मुझे भी ख़ूब भाता
कहाँ तो सोया था, बैठ गया खाने, खाते-खाते पूछा, 'ई बताओ, ऊ जो सब अनाज था, का हुआ
कउआ काका ले गया ?', आजी पास जब हर सवाल का, जवाब नहीं होता, कउआ काका की
कथा में उलझा देती, कि अच्छी तरह जानती, कउआ काका की कथा मुझे बहुत पसन्द
'बेटा, कउआ काका भी का करता, अभी बड़ा ही हो रहा था, उसके बाबू
मर गए, उसकी तीन बहनें थीं, जब बड़ी हुईं, उनका ब्याह
कहीं भी कैसे कर देता, लोग कहते, टुअर
बेटियों का केहू नाहीं
भाई भी नाहीं, इसलिए हर बार
बियाह खातिर
खाने-भर रख, जेठ में सब अनाज बेच
देता कि जो भी औक़ात, बढ़िया घरे बियाह सके...', मैंने देखा
कउआ काका की कथा कहते आजी कतहुँ खो गई, बोरसी में
आलू ढूँढ़ते कि क्या, कहने लगी फिर, 'बेटा, कउआ
काका कहता है, बेटियाँ ही ऐसी, जो
ससुराल में छुप के भी
रोएँ, तो नइहर की
चौखट भी सुन लेती है...!'