भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कचरा पेटी / प्रमोद कुमार शर्मा
Kavita Kosh से
घर
मेरो घर
बण ज्यावै
कणाई-कणाई कचरा पेटी!
म्हूं होळै-होळै सावटूं
एक-एक बस्त
अर हो ज्याऊं पस्त
देख‘र कूटळौ!
सोचूं .....
कांई फरक है
इण समाज
अर म्हारै घर मांय!