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कठिन / कुमार वीरेन्द्र

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नदियों की कोई नागरिकता नहीं होती
फिर भी जहाँ कहीं
से गुज़रती हैं, सींचती हैं; वृक्षों के पास भी, नहीं होती
नागरिकता, फिर भी देते हैं छाया; पहाड़ों से पूछोगे, कोई एक न बता पाएगा, है नागरिकता, तब भी
क्या वे तुम्हें दृढ़ रहना नहीं सिखाते, उनके साहस और धैर्य को कैसे भूल सकते हो; चलो छोड़ो, यह
बताओ, कभी किसी चिड़िया से पूछी है उसकी नागरिकता, क्यों नहीं पूछी, एक
रूठ जाएगी तो सब रूठ जाएँगी, हो जाएँगी तुम्हारे ख़िलाफ़, घर
से ही नहीं जीवन से भी बिला जाएगी चहचहाहट; तुम्हें
धूप प्रिय है, है बारिश, क्या इसलिए नहीं
पूछोगे नागरिकता; सोचो
यह जो तुम
पूछ रहे इनकी-उनकी नागरिकता, किसलिए
कि ये मानुष हैं
नहीं, तुम ग़लती कर रहे हो, सिर्फ़ मानुष से देश
नहीं बनता, देश बनता है नदियों, वृक्षों, पहाड़ों, चिड़ियों, धूप, बारिश, जाने कितना कुछ से, जो अछोर
ख़ैर बताओ, तुम ऐसे कितने मानुष को जानते हो, जिनमें कोई नदी नहीं होती, जो किसी वृक्ष की तरह
नहीं लगे, जो विकट में साथी नहीं किसी पहाड़ की तरह; बताओ, ऐसे कितने को जानते
हो, जिनकी ख़ुशी में कोई फुदकती चिड़िया नहीं देखी, जिनके दु:ख में टूटे
पँख नहीं मिले तुम्हें; ऐसे मानुष जिनसे तुमने थोड़ी धूप नहीं
माँगी; जिनकी बारिश में अपने स्वप्न सिरजते
कोई यात्रा नहीं की; बताओ, ऐसे
कितने को जानते हो
क्या ठीक-ठीक गिनती करके बता सकते हो
देखो, तुम ताक़तवर हो
अपनी ताक़त का दुरुपयोग कर रहे हो; अरे ढूँढ़ते
रह जाओगे, ऐसा कोई नहीं मिलेगा, जिसमें नदी न सही वृक्ष न हो, पहाड़ न सही कोई चिड़िया न हो
न हो धूप-बारिश; चलो मान लेते हैं, तुमने ढूँढ़ ही लिया ऐसे मानुषों को जो नदी, वृक्ष, पहाड़, चिड़िया
धूप, बारिश से विहीन, तो क्या उनके भीतर झाँककर बता सकोगे, वे अपने ही भीतर
कितना बचे हैं; देखो, तुम मूढ़ नहीं हो, मूढ़ता एक हद के बाद क्षम्य
हो सकती है; तुम तो सनकी हो सनकी, अपनी सनक
में कैसी और कितनी क्रूरताएँ किए जा
रहे हो, तुम्हें पता ही नहीं, नहीं
पता तुम्हें; काश
तुम जान पाते, किसी देश के नागरिक होने से
कितना कठिन होता है, कितना ज़्यादा कठिन
मनुष्य होना !