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कनस्तर / ओमप्रकाश सारस्वत

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चीज़ें कुछ इस मिजाज़ से बिखरी हैं कि
कनस्तर में आने के बदले
वे गन्दे मौसम की बगल में
बसने लग गयी है


गन्दे नालों की भू-पट्टियों पर
मेंढकी झोंपड़ियों की तरह

यहाँ जब भी कोई कनस्तर बजता है
मुझे तुरंत उन चीज़ों की याद आ जाती है


जो उसकी होकर भी
उसकी हो नहीं रहीं

यद्यपि चीज़ों का कनस्तर से
उतना ही सम्बन्ध है
जितना गँवारों का गालियों से

यहाँ पता नहीं कैसे
गंदगी ने
'बसुधैव कुटुम्बकम' का महामंत्र
साध लिया है
और अब वह
मधुमक्खियों के छत्तों से लेकर
घर के छज्जों से होती हुई

दीवारों पर पाँव धरती
नींव में घर कर गयी है

घर का हर हिस्सा अब
कनस्तर का हिस्सा लगने लग गया है
देखो यह बद्दिमाग़ मौसम

वृक्षों के कंधों पर चढ़कर
पत्तियों को अँगूठा दिखा रहा है

दादे के कँधों पर चढ़े चोटी कचोटते
पोते की तरह

किसी के कँधों पर चढ़कर
उसकी मजबूरी का उड़ता हुआ
रंग देखने का हमारा शौक

पोते की तरह जिद्दी और
बचपन की तरह चिढ़ाऊ है

इधर यह खरदिमाग मौसम


(चूँकि अब गन्दगी भी उसके साथ हो गयी है)
सोचता है कि हर सही दिमाग को
हिस्टोरिया बन के लग जाओ,लोगों को

बेहोशी की हालत में नंगा कर दो

उनसे करा लो जो कुछ कराना है
उनसे कर लो जो कुछ करना है

क्योंकि हिस्टीरिया में हर उपचार जायज़ है,

ऑपरेशन थियेटर में
कपड़े उतारने तक से लेकर
भोग कसे योग-क्षेम तक की मुद्रा तक में आने तक

यह सम्पूर्ण प्रक्रिया विधि विशेषज्ञों के
निदान के अनुकूल है
यह सम्मोहन की मोहनी विद्या है

इधर कई रोगों ने इसे छूट में सिर उठाकर
लक्षणों समेत पाँव फैलाने शुरू कर दिये हैं

कई रोगों ने कुर्सियों के ताने-बाने में तनकर
साहबों की बीवियों की तरह
चिपका रखा है

कुछ रोगों ने
चापलूसी की अंगुली पकड़ कर
चालाकी से डग भरते हुए
ईमानदार घरों में
घुसना शुरू कर दिया है
ताकि भले घर का लेबल
उनकी बदमाशियों को
शालीनता की तह में छुपाए रखे
और अन्दर वे पूरे घर की सफेदी को
रात की तरह स्याह करने में लगे रहें

यहाँ हर दिन बदमाशी करता है
रात का तो केवल
नाम है बदनाम

अब कई रोग हस्पतालों में
रोगियों को छोड़ डॉक्टरों को लगने लग गये हैं

डॉक्टर अब यह सोचने की तरकीब में हैं
कि रोगी के रोग की गाँठ खोलने के बजाए
उसके कौन से बटन पर रखी जाए आँख

और देह कौन से द्वीप से
उपचार और उपभोग की सम्मिलित पद्धति
की जाए ईजाद


मेरे देह्स के सेवा सदनों में
रोगियों ने
स्वस्थ होने की कामना में अब
मृत्युंवरी आरतियाँ रच ली हैं
ताकि रोगी और चिकित्सक
दोनों शांति लाभ कर सकें
हम जब भी कभी बिना लाभ के कहीं भी फंस जाते हैं
तो केवल मुक्ति ही चाहते हैं

तुम सोचते होओगे
कि यह कैसी कविता है
पर तुम्हीं बताओ ऐसे मौसम में, मैं
कैसी कविता लिख सकता हूँ
जबकि हर चीज़ एक-दूसरे के विरुद्ध साजिश में मशगूल हैं


देखो जब तुम्हारी बीवियाँ ही
तुमसे मूँह चिढ़ाने लग जाएं
तो क्या तुम उनकी चोलियों से करोगे प्यार !

जब तुम्हारे बच्चे ही तुम्हें
तुम्हारे ही मुँह पर
'खुद के मज़े के लिए बने माँ बाप
कहने लग जाएं

तो तुम क्या गीदड़ियों के बच्चों का मूँह चूमोगे?
फिर बच्चे जब तुम्हें पिता और माँ को माता
नहीं पायेंग़े
तो फिर कहाँ जाएंगे

देखो ऐसी बहुत कम भैंसे होती हैं समाज में
जो बछ्ड़े को अपना दूध पीने देती हैं
हम एक दूसरे का दूध पी कर तो बच सकते हैं
पर आज जबकि खून पीने की नौबतर

आ गयी है
हम कब तलक ज़िन्दा रह सकते हैं
वैसे ज़िन्दा रहने को तो लोग
ज़िन्दा रह रहे हैं
तरक्की के नाम पर लोग तरक्की भी कर रहे हैं
पर वे किस प्रकार अपनी ज़रूरतों के
कनस्तर भर रहे हैं

यह या तो वे ही जानते हैं
या उनका खुदा
( हाँ कइयों के बारे में थोड़ा मैं भी जानता हूँ)

हम खुद परेशान हैं
पर करें क्या?
कैसे दिन दिहाड़े दूसरे का गला काटकर
उसके रक्त को अपनी धमनियों में भर लें?

कैसे दूसरों को शरीफ दिखकर
उनकी बेटियों को
इतिहास की जगह भू-गोलार्धों का
ज्ञान कराना शुरू कर दें

या कैसे किसी की बीवी को
लफ्फाज़ी तारीफी के जाल में फंसा कर
उसके प्रत्येक अंग पर
सामुद्रिक शास्त्र के लक्षण हटाते हुए
पान की पीक की महावर
उसके अंगों पर सजा दें
मुझे बड़ी कोफ़्त होती है तब
जब मेरे रंगीन किन्तु तथाकथित आचार्य
इतिहास पढ़ाते हुए दैहिक भूगोल पढ़ाने लग जाते हैं
और मनु पढ़ाते हुए वात्स्यायन के
कामशास्त्र को नकाम सिद्ध करके
गिद्ध की तरह "फ्रँयड के 'लिबिड' क़ी डाल पर बैठकर
यौन विज्ञान के प्राचार्य बन जाते हैं।

उनका मनोविज्ञान
संभवतः उनके लिए सारा शास्त्र
इसी में सन्नध है

पता नहीं
मुझे किस सामाजिकते झिंझोड़ा है कि
लोगों की बदमाशी
मेरे दिमाग़ से जाती ही नहीं

पर मैं, यह भी नहीं कहता
कि सारी वर्णमाला ही
साबरमंत्रों की तरह निरर्थक है"



या मेरे समाज में विशिष्टता विशेष हो गयी है

परंतु वह इस कदर अस्थिशेष हो गई हैं
कि माँस और रक्त का मौसम
केवल जंगली भैंसों की देहों तक ही है सीमित
भरी बरसात में
केवल पलाश ही फूला है
बसंत आज तक
किसी करील की डाल पर
पल्लवी शाल नहीं ओढ़ा सका

मौसम के हर उत्सव में यहाँ
षड़यंत्र के शतमुखी नुकीले पंजे
कलियों की तरह उभर रहे हैं
शतशूल होने को

समाज में सम्बंधों के उत्सब
अब केवल देहोत्सव हो गये हैं

यह महामाया 'बू' अब
व्यक्ति के समाज
और समाज से राजनीति में
संक्रमित हो गई है

देश के भोले विश्वासों को
नेताओं की 'बुलडोज़री' नीति
कर रही है बराबर
जनसमस्याओं से वे शुतुर्मुर्ग की तरह
बरत रहे हैं
लोग उन्हें सारस समझ कर सराह रहे हैं
वे फसल के कीड़े चुगने के बदले
फसल के बीज खा रहे हैं
लोग फिर भी उनकी चोंच के गीत गा रहे हैं
हमारे देश में
कलगी और चोंच पर मरने वालों की संख्या
कम नहीं
(कई बार लोग चित्र-विचित्र
परों पर भी मोहित हो जाते हैं)

ख़ैर,कहें क्या
लगता है गंदगी,प्रभविष्णु हो गई है अब
और कनस्तर
गंदगी समेटने की लघुतम इकाई

अतः मुझे तो अब बस एक मरती हुई तरकीब
बचती हुई शेष दिखती है कि

कनस्तर में चीज़े समेटने के बजाए
सीधे गंदगी पर हल्ला बोल दिया जाए

अन्यथा
यह कीड़ी की चाल से चलकर भी
घोड़ों की भांति रोंद डालेगी एक दिन
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