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कन्नें जैइयै / कस्तूरी झा 'कोकिल'
Kavita Kosh से
सावन केॅ बादल गरजै छै,
रात भयानक लागै छै।
विरही जीवन बड़ा कश्टकर,
नींद अचानक भागै छै।
मेंढ़क, झिंगुर आरो पपीहाँ,
अलगे रंग जमाबै छै।
रही-रही केॅ शोर मचाबै,
सुतलॅ आग जगाबै छै।
चौथापन के विरह वेदना,
भीतरे-भीतरे मारै छै।
नैं बोलैॅ नैं कपसे दै छै,
धुराय फुराय केॅ जारै छै।
बाँकी सब छै अमनचैन मेॅ
सुख केॅ झूला झूलै छै।
तनी-मनी दुःख की करतै जी
हिली-मिली केॅ भूलै छै
तोंही बताबॅ हम्मेॅ की करियै।
कोय उपाय नैॅ सूझै छै।
भरला रातीं छटपट जीवन
हमरॅ दुख केॅ बूझै छै?
हे परमेश्वर दया देखाबॅ
कन्नेॅ जैइये राह बताबॅ?
अन्धकार सगरो घिरलॅ छै,
दिव्य ज्योति सेॅ दूर भगाबॅ।
01208/15 पूर्वाहन 11.55