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कब कहाँ किसी की भी अर्जियाँ समझती हैं / राम नाथ बेख़बर
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कब कहाँ किसी की भी अर्जियाँ समझती हैं,
बिजलियाँ गिराना बस बिजलियाँ समझती हैं।
गर पकड़ में आई तो पंख नोचे जाएंगे,
बाग़ की हक़ीक़त सब तितलियाँ समझती हैं।
पहले दाने डालेगा फिर हमें फँसाएगा,
चाल यह मछेरे की मछलियाँ समझती हैं।
फ़्लैट कल्चर आया है जब से अपने शहरों में,
रोशनी की कीमत सब खिड़कियाँ समझती हैं।
चल पड़ेंगे बुलडोजर छातियों पे इनकी भी,
बिल्डरों की नीयत को झुग्गियाँ समझती हैं।
वो उमंगें नाज़ुक-सी चैट वाले क्या जाने,
प्यार वाली जो बातें चिट्ठियाँ समझती हैंll