भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कब ताँय / कस्तूरी झा 'कोकिल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रात दिन हमरा आँखी में तोहीं सदा बिराजै छॅ।
कत्ते पूछला पर भी तोहैं कुछ नैं बोलै बाजै छॅ।
अधरतिया में नींद खुलै छै,
दुनियाँ सुतली, कोय नैं मिलै छै।
टुक-टुक ऊपर ताकै छीहौं
अगल-बगल में कोय नैं मिलै छॅ।
रही-रही बितलॉ बातों केॅ सेना कैहने साजै छॅ।
रात दिन हमरा आखी में तोंही सदा बिराजै छॅ।
सब निभोर सुतलॅ छै प्रिय हे।
हमरैह नींन नैं आबै छै।
कहलऽ सुनलऽ याद पड़ै छै,
कलपित मोॅन पछताबै छै।
कानहैं में बोली देॅ जलदी बाहरें अगर लजाबै छॅ।
रात दिन हमरा आँखी में तोंहीं सदा बिराजै छॅ।
आबी जा कबतॉय रुसभेॅ जी?
ईरं कहाँ कभी करलेॅह जी?
छटपटाय केॅ होय छै भोर,
केॅ चुप करतै पोछतै लोर?
गलती सलती सब भूली जा कबताँय गला लगाबैछेॅ।
रात दिन हमरा आँखी में तोंहीं सदा बिराजै छै।

01 मार्च, 2015, सांझ 5.40