भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कब से ये शोर है शहर भर में / विजय किशोर मानव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कब से ये शोर है शहर भर में
हो रही भोर है, शहर भर में

सलाम, सिजदे, हां-हुज़ूरी का
आज भी ज़ोर है, शहर भर में

आईना सही बात कहने में
सबसे कमज़ोर है, शहर भर में

कठपुतलियों के करोड़ों चेहरे,
नचाती डोर है, शहर भर में

दहशतें तैरती हैं चीख़ों पर,
भीगती कोर है, शहर भर में

एक मादा है कोई भी औरत,
मर्द हर ओर है, शहर भर में