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कबीरे / अनुपमा तिवाड़ी

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कबीर,
तुमने सूत नहीं काता
तुमने ज़माना काता
तुम जब भी बाज़ार गए तो
दुकानदारों ने दिखाई तुम्हें
सुन्दर बुनी महीन, गुदगुदी, रंगबिरंगी चदरिया
पर, तुम उन दुकानदारों से ही सवाल करने लगे
पहले ये तो बताओ कि ये चदरिया
किसने बुनी?
कब बुनी?
क्यों बुनी?
किसके लिए बुनी?
और कौन ओढ़ेगा इसे?
दुकानदार, तमाशबीन, खुदा के बन्दे, भक्त और सभ्य ज़रा यूँ तुनके -
तुम अपनी खड्डी संभालो,
सूत बुनो,
गृहस्थी देखो,
बच्चे पालो
क्या मतलब तुम्हें इस सबसे?
पर तुम समझते नहीं हो!
और फिर हर युग में आ-आ कर वही सवाल करने लगते हो
करो सवाल,
तुम्हें हर युग में वही जवाब मिलेगा
तुम अपनी खड्डी संभालो ,
सूत बुनो,
गृहस्थी देखो,
बच्चे पालो
कबीर,
तनिक सभ्य बन जाओ,
ज्यादा सवाल करना ठीक नहीं!
इतने युगों से तुम्हें समझा रहे हैं ये
और तुम हो कि समझने को तैयार ही नहीं!
कोई नहीं,
हम जानते हैं
तुम्हारी फितरत
कि तुम फटे में पैर फंसाने से बाज नहीं आते हो
ओ फक्कड़े,
बेढ़बे कबीर,
तुम्हारे सवाल कितने धारदार होते हैं कि चीर देते हैं
आदमी को अन्दर तक
उनकी चमक कभी फीकी नहीं पड़ती
वो चमकते रहते हैं
हर युग में
अंगारे से!