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कभी-कभी. / केशव
Kavita Kosh से
मेरे पास आ बैठती हो तुम
कभी-कभी
तुम्हारी चिड़िया जैसी भोली
नाचती आँखें
कहती हैं कुछ
मैं जान लेता हूँ कि
उनमें छिपा है
सहज निमंत्रण
मुझे पास
इतना पास बुला लेती हो
देख नहीं सकती हो आँखों से जहाँ
धीरे-धीरे
पँख खोल
फैल जाती हो मुझमें
जैसे मुंडेर चढता
धूप का अलसाया टुकड़ा
विभोर हो
जन्म देती हो तब मुझे
उड़ने लगती जो
मेरी परछाईं सहित
गुब्बारा जैसे आसमान में