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कभी-कभी / चन्द्र
Kavita Kosh से
कभी-कभी बापू की आँखों में
भयावह उदासी देखकर
इतना सहम जाता हूँ
इतना सहम जाता हूँ
कि भीतर-बाहर पसीज-पसीज कर
चुपचाप रोने लगता हूँ...
चुपचाप
और पिताजी तभी
मुझसे कहने लगते हैं
कहने लगते हैं
कि
बाबू !
ई ज़िनगी है, जिनगी
ई जिनगी में
कभी भी दुख छप्पर फाड़ के ही आता है
लेकिन बाबू !
ई जिनगी में
कभी भी सुख बहुत-बहुत कम ही आता है
बहुत-बहुत कम ही !