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कभी कभी कोई चेहरा ये काम करता है / ज़फ़र सहबाई
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कभी कभी कोई चेहरा ये काम करता है
मिरे बदन में लहू तेज़-गाम करता है
हर एक लफ़्ज़ को माह-ए-तमाम करता है
मिरी ज़बान से जब वो कलाम करता है
कई दिनों के सफ़र से मैं जब पलटता हूँ
वो अपने पूरे बदन से कलाम करता है
बहुत अज़ीज़ हैं उस को भी छुट्टियाँ मेरी
वो रोज़ कोई नया एहतिमाम करता है
शिकायतों की अदा भी बड़ी निराली है
वो जब भी मिलता है झुक कर सलाम करता है
मैं मुश्तहिर हूँ सितमगर की मेहरबानी से
वो अपने सारे सितम मेरे नाम करता है
किसी के हाथ में ख़ंजर किसी के हाथ में फूल
क़लम है एक मगर कितने काम करता है
जब उस से मिलता हूँ दफ़्तर को भूल जाता हूँ
‘ज़फ़र’ वो बातों ही बातों में शाम करता है