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कभी दूसरों ने डरा दिया कभी अपने आप से डर गया / रमेश तन्हा

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कभी दूसरों ने डरा दिया कभी अपने आप से डर गया
मिरा साया साथ रहा मिरे, मैं जहां गया, मैं जिधर गया।

मिरे दिल में कितने सराब हैं, मिरी रूह का जो अज़ाब हैं
उन्हें देख कर मैं लरज़ उठा, उन्हें सोच कर मैं बिख़र गया।

वही राह-रौ, वही मंज़िलें, वही जादा, जादा सऊबतें
कभी चल पड़े कभी रुक गये इसी कश्मकश में सफ़र गया।

मिरी ज़ीस्त की जो असास है मिरी सांस महज़ कयास है
मुझे फिर भी जीने की आस है मैं कि डूब डूब उभर गया।

मिरा नाम यूँ तो है ज़िंदगी, मुझे मौत से मिली रौशनी
मिरी रम्ज़ को वही पा सका, जो भी खुद से बच के गुज़र गया।

मुझे क्या बुरी थी वो नेस्ती, जो अज़ल अबद ओए मुहीत थी
मिरी ज़ेब में थी हमेशगी, मिली ज़िन्दगी, तो मैं मर गया।

न मैं फूल हूँ, न मैं ख़ार हूँ, न नशा हूँ, मैं न ख़ुमार हूँ
मैं तो एक मुश्ते-ग़ुबार हूँ, जो हवा चली तो बिख़र गया।

न मैं धूप हूँ, न मैं दाग़ हूँ, न मज़ार का मैं चराग़ हूँ
मैं तो ज़िन्दगी का सुराग़ हूँ, जिसे तू ख़लाओं में भर गया।

मैं खबर हूँ कोई कि ख़्वाब हूँ, तिरे होने का कि जवाब हूँ
मैं वो दश्त दश्त सराब हूँ, जो जनम के साथ ही मर गया।

मैं ही 'ते' हूँ और मैं ही 'नून' हूँ, मैं ही 'हे' अलिफ़ का जुनून हूँ
मैं वो फैज़याब-ए-फनून हूँ, जो ब-शक्ल-ए-शेर सँवर गया।