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कभी वह उतरती है बिम्ब में / तेजी ग्रोवर
Kavita Kosh से
कभी वह उतरती है बिम्ब में
कभी कोरे किसी शब्द में
शव के लिए सहेज दिए गए कपड़े-सी
आस्था —
अनास्था के बे-अन्त जाल बुनती हुई
वनस्पतियों के घनत्व में
क्या यह सच है कि भूख के शब्द में मनुष्य ही का बिम्ब है
कि प्यास के शब्द में
वे माटी और कंकरों को उबाल कर पीते हैं
वे हड्डियों के आटे की रोटी बेलते हैं
वे पेड़ में पड़े कीड़े और जल को सुड़क लेते हैं चोंच से
वे मुँह बाए गोदुए में प्रतीक्षा करते पँखहीन शिशुओं को
पूरी पृथ्वी को ढाँप देने कोई एक चादर बुनता है
और प्रतीक्षा करता है —
(कोई नहीं जानता
किसी को नहीं पता इस फ़न का
किसी ने
कभी
कुछ भी सीखा नहीं)