भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कमीज / राजेन्द्र उपाध्याय
Kavita Kosh से
वह मेरे लिए ही बनी थी
कई कमीजों के बीच वह मुझे ऐसे ढूँढ रही थी
जैसे मेरे लिए ही जन्मी हो
बार-बार मुड़कर मैं उसे देख लेता था
और हर बार वह मुझ से कहता थी
मुझे घर ले चलो
मैं अपनी जेब टटोलता था
उसमें उतने पैसे नहीं थे कि तुरंत उसे घर ले जाता।
आज नहीं, ज़रा इंतज़ार करो
कल फिर आऊंगा
कल तुम्हें ज़रूर छुड़ा ले जाऊंगा। यहाँ इस शो केस से
कल तुम फिर खुली हवा में सांस ले सकोगी
कल जब मैं फिर घुसा उस दुकान में
तो वह वहाँ नहीं थी।