भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
करक्वालै उड़ि गयीं / बोली बानी / जगदीश पीयूष
Kavita Kosh से
करक्वालै उड़ि गयीं
बीति गै बरखा कै बेला
बूढ़े बरगद ते उठिगा है
चिरियन का मेला
बीति रहा हमरिही द्याँह पर
आजु कुँवारी घाम
केतनौ ध्यान धरौ ई बेरा
हुइ-हुइ जाति जोखाम
कातिक आय रहा
लरिकउनू घूमै निकरि लिहिन
हमरे जिउ का डारि गये हैं
बोउनी कयार झमेला
हाँथ पाँव मा जान नहीं है
हुइगेन ठवर-टक्करी
मुला काम की बेरिया है
घर बइठे आखिर का करी?
जब लौ पौरुख है
तब लौ कुछु ते कुछ कीन चही
कइसेव दाना परै ख्यात मा
हेय न ठैलिम-ठेला
नाते रिस्तेदार सबै हैं
लूटै का मुंहु बाए
राम-राम कइके दिन बीते
सेतुआ पिये-पियाए
अब बेसार का नाजु नहीं है
करजै लेक परी
आँसौं सूखा परा बचा ना
घर मा एकौ धेला