भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
करता जो प्रीत / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
Kavita Kosh से
|
दिन पर दिन चले गए,पथ के किनारे
गीतों पर गीत,अरे, रहता पसारे ।।
बीतती नहीं बेला, सुर मैं उठाता ।
जोड़-जोड़ सपनों से उनको मैं गाता ।।
दिन पर दिन जाते मैं बैठा एकाकी ।
जोह रहा बाट, अभी मिलना तो बाकी ।।
चाहो क्या,रुकूँ नहीं, रहूँ सदा गाता ।
करता जो प्रीत, अरे, व्यथा वही पाता ।।
मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल