करुणा का बीज/ प्रताप नारायण सिंह
कुछ खोए बिना
करुणा को जान पाना संभव नहीं।
जब आँखों से
सपनों डोर
छूटने लगती है,
जब भविष्य की दीवार
रेत की तरह
ढहती प्रतीत होने लगती है
तब समझ में आता है
धरती कितनी वीरान हो सकती है
करुणा के बिना|
शोक के बिना
करुणा का स्वर सुनाई नहीं देता|
जब प्रगाढ़ नीरवता
अंतस्थल में घर कर लेती है,
जब साँसें भारी होने लगती हैं
और मनुष्य आँसुओं के धागे से
अपने ठिठुरते मन के लिए
अँगरखा सिलने लगता है
तब हर धागा
करुणा का स्पर्श माँगता है|
करुणा कोई विचार नहीं,
वह दृढ़ हाथ है
जो गिरते समय सहारा देता है,
वह पुष्ट स्वर है
जो एकाकीपन में उभरता है--
“मैं यहीं तुम्हारे साथ हूँ।”
यह धूप में तुम्हारे साथ साथ
चलने वाली छाया है
यह वह मौन मित्र है
जो अँधेरे में भी
तुम्हारा हाथ नहीं छोड़ता|
करुणा कोई उपदेश नहीं,
वह जीवन का सबसे गहरा बीज है,
जो टूटन की मिट्टी में
अंकुरित होता है,
और बार-बार
हमें मनुष्य बनाता है।