कर्फ्यू / केशव
संगीनों की नोक पर टँगे
वातावरण के कँठ में
हड्डी की तरह फँसकर रह गयी है चीख
घोड़े की टापों के नीचे
छलनी-छलनी प्रजातंत्र
बदहवास पीट रहा है
एक झोंपड़े का द्वार
पर खामोशी की दरार में
दुबका पड़ा है हर कोई
पता नहीं किस वक्त
हवा कर ले
कौन-सा रुख अख्तियार
जिद्दी सूरज फिर भी
खोज रहा है
जिन्दगी का कोई बचा-खुचा निशान
इश्तहारों और अखबारों में
जुड़े हैं नमस्कार की मुद्रा में
जो हाथ
गर्दनों की ले रहे नाप
जानते सभी हैं
मानने को नहीं कोई तैयार
उधर भाग रहा
भोला राम
अपनी ही परछाईं से भयभीत
नहीं पता बेचारे को
आगे है कुआँ
तो पीछे खाई
जेबों में दियासलाइयाँ रखे
घरों के आस-पास
घूम रहे आदमखोर
किसी खिड़की में डूबेगा आज सूरज
लोग सहमे-सहमे ताक रहे
आसमान की ओर
सन्नाटे की दीवार पर
जब भी कहीं पड़ती है चोट
चौंककर
नाखूनों से
ज़मीन खोदने लगते हैं लोग.