कर्म के चक्र व्यूह / ईहातीत क्षण / मृदुल कीर्ति
इन्ही के आधार पर ,
विधना के विधान हैं.
जब कर्म की कुंजी हमारे हाथ मैं है,
तो कर्म ग्रन्थ भी हम मनोनुकूल बना सकते हैं.
केवल समत्व भाव से,
कर्तृत्व पर ध्रुवत्व भाव होने का मूल आना चाहिए.
ध्रुवत्व धृति ही ,
मोह भंग कर ,
कर्तव्य भान देती है.
वरना युगों -युगों तक देह के पिंजर में,
पूर्वाजित कर्म काटने को
आत्मा विविध देह के रूपों में,
संवारती है , भटकती है,
जब हम स्व--भाव , आत्म --भाव को भूल कर ,
राग द्वेष में आनंद लेते हैं,
तब ही सोने की और लोहे की जंजीरों में,
स्वयम को बाँध लेते हैं.
मोह्जन्य भ्रान्ति,
एकाग्र पंथ का पथिक नहीं होने देती ,
हम जहाँ से चले तो वहीँ रह जाते हैं.
निर्लक्ष्य भटकते कल्प के कल्प निकल जाते हैं.
मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान ,
मोह जन्य भ्रान्ति के वशीभूत होकर ही,
हम कर्म के करता होते हैं.
यूं ही बंधन पर बंधन बंधते चले जाते हैं.
हम स्वयम ही कर्मंजय होकर,
महाकाल मृत्युंजय होकर ,
स्वयम को उबार सकते हैं.
मेरा तरन -तारण -तारणहार ,
मेरे कर्मों के अतिरिक्त कोई नहीं.
पर अंततः कर्म के चक्र व्यूह ,
एकमेव निष्काम कर्म से ही कटते हैं.