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कर्मयोग / मन्त्रेश्वर झा
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सीढ़ी पर सीढ़ी चढ़ैत चढ़ैत,
हँफेत
पसेना मे नहाइत
छत पर पहुँचबाक होड़ मे।
पथिक कने सुस्ताइत अछि
ओंघाइत अछि
सपनाइत अछि जे
क्यो आन
चिर परिचित कि अनजान
तड़पि गेल अछि छत
छड़पि गेल अछि पहाड़
आ छत तऽ कखन ने
धँसि गेल छैक
आ पथिक अपने चढ़ल
सीढ़ी दर सीढ़ीक
चक्रव्यूह मे फँसि गेल अछि
जगलो मे अपस्याँत
सुतलो मे अपस्याँत, त्रस्त
आकांक्षाक मायाजाल मे सन्त्रस्त
चेहा केँ उठैत अछि पथिक
छत दिस दौड़ैत अछि
ताधरि लगैत छैक
जेना छत आरो ऊपर
घुसकि गेल छैक।
पता नहि पथिकक यात्रा
मृगतृष्णा थिक
आ कि कर्मयोग।