भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कर्मरत स्त्री / बालकृष्ण काबरा ’एतेश’ / माया एंजलो

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

करती मैं बच्चों की देखभाल
अच्छे से रखती हूँ कपड़े
पोंछती हूँ फर्श
ख़रीदती हूँ खाने-पीने के सामान
तलती हूँ चिकन
रखती हूँ बेबी को साफ़-सुथरा
कराती हूँ भोजन साथ-साथ
करती हूँ बगीचे की साफ़-सफ़ाई
करती मैं शर्टों की प्रेस
पहनाती मैं बच्चों को ड्रेस
करती हूँ गन्ने के टुकड़े
रखती मैं घर को साफ़
फिर ध्यान देती बीमार पर
और साज-सम्भाल पर।

धूप, तुम मुझ पर खिलो
बारिश, तुम मुझ पर बरसो
ओस की बून्दों, तुम हल्के से गिरो
और मस्तक मेरा शान्त करो।

आन्धी, तुम अपनी भीषण बयार से
बहा ले चलो मुझे यहाँ से
उड़ने दो मुझे आकाश में
कि मैं कर सकूँ आराम फिर से।

बर्फ़, तुम गिरो धीरे-धीरे
लपेट लो श्वेत चादर से मुझे
दो बर्फ़ीले शीतल चुम्बन
और करने दो आराम आज रात मुझे।

धूप, बारिश, विस्तीर्ण आकाश
पर्वत, सागर, पत्थर और पाती
सितारों की चमक, चान्द की आभा
            तुम हो वे सब जिन्हें मैं अपना कहती।

मूल अँग्रेज़ी से अनुवाद : बालकृष्ण काबरा ’एतेश’