कल आज और कल / शिव कुमार झा 'टिल्लू'
बीता हुआ कल था एक सपना
दुखदायी हो या हो सुनहरा
आज की सोच! यही तो है अपना
आनेवाला कल मात्र एक कल्पना
सुनते सुनते मन ऊब गया
खोये कल में डूब गया
कैसे भूल सकता हूँ मैं?
उन अंतर -अर्बुद पीड़ा को
अर्णव तरंग की तरह आई
सुखद अनुभूतियों को भी
याद रखा है मैंने
जिसने स्नेह दिया उसे भूलकर
क्या वफ़ा का अपमान करूँ?
जिसने लिया आत्मा को खंगाल
खींचा दारुण संवदेना का खाल
क्या उन्हें भूलकर
कर दूँ घ्राणशक्ति का अपमान
श्वान का घ्राणशक्ति नहीं
यह है एक मानव द्वारा
व्यथा दिए दानव और स्नेहिल मानव
को परखने का तादात्म्य!
विश्वास में जहाँ खाया था
एक बार ठोकर
क्या उसी राह में वापस जाऊं
फिर उसी दर पर भटककर
बेदर्दी से ठोकर खाऊँ?
अरे तब भूलूँ कैसे
तब क्यों कहते हो यह
बढ़ता ही है ठोकर से ज्ञान
होती सत्यकर्म संज्ञान
भूतकाल को भूलने
अब तो नहीं कहोगे ना
क्या है ,आज वर्त्तमान कैसा?
सोचोगे जैसा पाओगे वैसा
क्षण में ही पलट जाती है दुनियाँ
सारे रंग हो जाते बेरंग
किसी को दे देती सप्तरंगी आयाम
नव जीवन का विहान
जैसे हुआ हो तत्क्षण पावस का अवसान
चहक उठी है यौवन
इंद्रधनुषी आकाश की तरह
मेघ की घनघोर छटा से उन्मुक्त
शीतल शीतल पवन विहंगम
रवि अर्चिस का मादक संगम
लिटा देती है किसी नवयौवन को
अकाल! सफ़ेद लिवाश में
ओह! उसकी नवल सहधर्मिता
पल भर पहले थी सबला
सूर्य चढ़ते ही हो गयी अवला
चूड़ी बचने वाले को कल ही तो
हँसकर कहा था उसने
आज आने के लिए
क्योंकि उसके उबडुब यौवन रथ के
सारथी जो आने वाले थे
निरीह व्यापारी चूड़ीवाला आया भी
लेकिन उस अभागिन के दर से
फूटी बिखरी चूड़ियाँ ले गया
साजन नहीं उनका आया मृत तन
अरे समय की गति का
गणन करने वाले शिल्पकारों!
यही है वर्तमान
जिसकी परिभाषा गढ़ते गढ़ते
दर्शन का हो जाएगा मर्दन
भविष्य तो भविष्य है
उसे जब नहीं परख पाया बनाने वाले ने
हम तुम ख़ाक चिंतन करोगे उसपर
ख़ाक छानते रह जाओगे
सोचते -सोचते पछताओगे
एक ही उपाय है
देखो सभ कुछ जो सकते हो देख
चिंतन करो चिंता नहीं
नहीं तो जल जाएगी चिता सोचने से पहले