भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कल फिर / शैलजा पाठक
Kavita Kosh से
डोरियों से उतार लाई मैं
आज की थकान
अब मोड़तोड़ कर रखने होंगे कपड़े
कल फिर इन पर
सूखने टंग जायेगी
एक और सुबह...