भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कलम के नाम / कैलाश पण्डा
Kavita Kosh से
एक प्रेम भरी पाती
कलम के नाम
जो लिखता हूं
सहर्ष स्वीकार करती है
जो चिंतन देता हूं
सहती है चुप-चाप
ना विरोधाभास
ना छुपाव
मेरे कथ्यों को
कैनवास पर उकेरती है
मेरे विचारों को
शब्दों के माध्यम से
संवारती है
मेरी संवेदनाओं को
समझती है
देती है शकून
मेरी शर्ट की जेब में
देखने वालों को
लटकती प्रतीत होती है
मै तो रखता हूं उसे
ह्रदय के समीप में
मेरी तो
वही तलवार
वही ढाल
वीणा, सुर,ताल
मन झंकृत तो
बज उठती है
प्रतिकार हो तो
खनक उठती है
मेरे सामने
तुला बनकर
तोलती रहती है
मेरी भावनाओं को हर क्षण।