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कलाहीन प्यार / मुकेश मानस
Kavita Kosh से
ये प्यार
न जाने कहाँ से आता है मेरे भीतर
और मैं इसे देता हूँ बिना सोचे समझे
शायद पाग़लों की तरह
या कभी तो गँवारों की तरह बिल्कुल
लोग मुझे सिखाते हैं पर मैं सीख नहीं पाता
प्यार बाँटने का कलात्मक और सभ्य तरीका
मैं बड़ा उल्लू हूँ काठ का सचमुच
जो इतनी-सी बात भी समझ नहीं पाता
जो प्यार कलात्मक और सुसभ्य नहीं है
आज की दुनिया मैं उसका कोई अर्थ नहीं है
और लोग हैं कि समझ नहीं पाते
प्यार को कलात्मक और सुसभ्य बनाने के लिए
बड़े धैर्य की ज़रूरत होती है
और धैर्य की
मुझमें
बड़ी कमी है