कल्पक प्रलय / प्रवीण काश्यप
हे धरा!
एक-एक डेग तोहर वक्ष पर धरैत
आरंभ कयलहुँ यात्रा;
ओ एक-एक डेगक संग
तों नुका लीहें
अपन आँचर में हमरा।
समाप्त भऽ जायत यात्रा!
अचलाक कोखि सँ चलल यात्री
अचल भऽ जायत एक दिन!
मुदा यात्रा नहि चुपचाप
मौन हमर आश्रय,
ने कहियो रहल ने अछि।
गुम्मा बनि कऽ गुम्हरने
सँ की होइछै जग में?
हे वसुधे!
हम तऽ बनायब
तोहर वक्ष पर
अपन सहस्रों पगक प्रतीक!
तोहर दुखमोचन लेल
हम अजश्र नोर बहायब;
तोेहर दूध सँ बनल
हमर नोरक टघार!
हे धरती!
हमरा पिया अपन क्षीर सागर
हमर नोरक टघार
आब सागर बनि जायत!
प्रलयक आरंभ अछि
हमर नोरक टघार
हे धरा!
तों हमर नोर सँ
सिक्त शुद्ध भऽ सकबें ?
तों देबें हमरा अधिकार
नवीन सृष्टि नवीन कल्पक लेल?
हे माँ!
हम थाकि गेल छी
दोसरक डेग पर डेग दऽ कऽ!
हमहुँ श्रद्धा ओ इड़ाक समागम सँ
रचऽ चाहैत छी नव-नव जीव
मुदा नहि मशीनी मनुक्ख!
घृणा-वासना-ईष्या-द्वेषक मसीन मनुक्ख!
हे वसुंधरा!
हमर पद चिन्ह परत तोहर देह पर,
देखा-देखी हमरो संतान सभ चलत;
उन्मुक्त यात्रा करत, प्रेम पथ बनत!
हमर संतान सभक पद-चिन्ह
मेटा देतैक प्रलय में बँचल
एकहु टा पूर्वक निसान!
हे पारू प्रिया!
हम अपन सूक्ष्मताक न्यूनतम स्तर
धरि पहुँचि चुकल छी
नहि छैक संभव, आब हमर टूटब!
हे माँ!
हमरा चाही ममत्व तोहर आँचरक,
हमर टूट सभ कें मिला ले
तों अपन माटिक आरंभ मे।
हमरा चाही तोहर उर्वरता;
अपन ऊर्जाक संचार
कर ने हमर टूट-टूट में!
हे अचला!
आब सृष्टिक आरंभ होयत
हमरहि वीर्य सँ!
हम भऽ गेल छी लय
पूर्णताः अपना आप में।
हमरो सुनाबऽ कें अछि
सूर्य कें नव योग ज्ञान!
हे माँ
जमल, ठाढ़ मनुजक खाढ़ी
आब निर्मूल भऽ जायत
हमरहि उष्ण रक्तक प्रवाह
हमर सभ संतान में!
हे माँ हमरा पिया ने अपन दूध
नवीन कल्पक लेल!