कल्पना के घुँघरू / विमल राजस्थानी
मिट्टी की सोंधी गंध बसी है प्राणों में
तारों के गंध-हीन कंुजों में क्यों जाऊँ
उस कल्पित नंदन का आनंद तुम्हीं लूटो
मैं तो अपनी मिट्टी से सौ-सौ सुख पाऊँ
मेरी मिट्टी से लिपट बनी गंगा पावन
मेरी मिट्टी खा कर मोहन मुस्काये थे
इस मिट्टी को ही चढ़ा शीश पर पुरुषोत्तम
अपनी खोयी मर्यादा वापस लाये थे
मेरे जीवन की सुरभि, प्राण की पुलकन है
मैं क्यौं न भला इस मिट्टी पर बलि-बलि जाऊँ
रवि से प्रकाश की जिसने सदा याचना की
वह एक अकेला चाँद चमकता अम्बर में
पर मेरी मिट्टी का कण-कण चाँदनी सना
मेरी धरती के चाँद विहँसते घर-घर में
नौ लाख सितारों पर इतरा कर क्या होगा
इन कोटि नयन के तारों पर मैं इतराऊँ
जिस मिट्टी पर करुणा बिखेर कविता फूटी
छंदों की छवि से शब्द-ब्रह्म ने ब्याह रचा
मन के आँगन में बजे कल्पना के घुँघरू
वेदों की गूँजी दिगदिगन्त में अमर ऋचा
साँसों का सरगम बजा प्राण की वीणा पर
मैं क्यौं न झूमू उस चन्दन का वन्दन गाऊँ
जिसने सोने जैसी काया को दुलराया
प्राणों का रस तुतले बोलों पर बरसाया
सुख-दुख के झूलों पर जिसने लोरियाँ सुना
मन के नयनों को सौंपी ‘सत्यम्’ की माया
यह मुक्ति-मोक्ष की तृषा मुबारक हो तुमको
मैं तो इससे उपजूँ, इसमें ही मिल जाऊँ
-5.12.1974